एक तमन्ना थी बरसों से फुर्सत का वक़्त बिताने की
आज फुर्सत मिली तो वो भी न रास आई।।
बच्चों और घर गृहस्थी में वक़्त का पता न चलता था।
आज तन्हाई मिली वो भी न रास आई।।
महामारी का कहर है चारो तरफ
आदमी आदमी को देखकर डर रहा है।
कहते थे जो कि मरने तक की फुर्सत नहीं
आज ज़ीने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा है।
दो जून की रोटी के जुगाड़ में जो भागे थे शहरों को
आज फिर से गांव उनको रास आने लगे
ऐशोआराम भले न सही
लेकिन जिंन्दगी की किल्लत तो नहीं।
ऐ इंसान सम्हल जाओ अभी भी ऐसा न हो कि
हवा और पानी के साथ जीवाणु की ज़िल्लत
अब भी लौट आओ अपनी प्रकृति अपनी सभ्यता
और अपनी इंसानियत का सबक लेकर
ये ac के बंद कमरे ये मॉल की चकाचौंध
ये पाश्चात्य संस्कृति की नकल
करते करते हम अपनी ज़िंदगी को ही मोहताज़
हो गए ।